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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


ठाकुर– अन्धेर है और कुछ नहीं? यह महा अन्याय है, बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूं।

मुंशी– आप से लोगों को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। चमारों पर भी यही आफत है दस-बाहर चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाये जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाय। अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर– चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है! ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। मैं रियासत की काया पलट कर दूंगा। सुनता हूं पुलिस आये-दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को वहां कदम न रखने दूंगा।

मुंशी– सड़कें इतनी खराब हो गयी हैं कि एक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर– सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर-सर्विस जारी कर दूंगा। जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाके में लाखों बीघे ऊख जाती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा। आप ने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी– हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपये देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाय।

ठाकुर– तो जाने दीजिए। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपये, दे, तो दे, लेकिन रिसायत की इंच-भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाराज रुपये देने पर राजी न होगा। ये बला के चघड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप से उड़ा दूं। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति है! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिये थे, जिनके पचास हजार हो गये। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख के सस्ते थे, नीलाम हो गये। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहां अभी यह बातें हो ही रही थीं कि जनानाखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यन्त गर्वशीला थी नाक पर मक्खी भी न बैठने देती। वह अपनी सहपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थी, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर कहती है।

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