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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। वह रानी जगदीशपुर की रानी की सगी बहन थीं। दया और विनय की मूर्ति, बड़ी विचारशील और वाक्य-मधुर, जितना कोमल अंग था, उतना ही कोमल हृदय भी था। घर में इस तरह रहती थीं मानों थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ-न-कुछ पढ़ा लिखी करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थी न किसी के लेने में, न किसी वैर, से न प्रेम।

तीसरी स्त्री का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी, या माया की-इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन-हृदय न थी, जो कुछ मन में होता वही मुख में। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे चिड़िया अपने अण्डे को सेती है।

ठाकुर साहब ने अन्दर जाकर वसुमती से कहा– तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरम-लिहाज नहीं, जब देखो संग्राम मचा रहता है। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गये।

वसुमती– कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर– तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा!

वसुमती– क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौड़े?

रोहिणी– आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़ कर ऊठाऊँ या बैठाऊँ तो यहां कुछ आप के गांव में नहीं बसी हूँ।

ठाकुर– आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

रोहिणी– वही हुई, जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालिकन ने उसे तेल डालते हुए देखा, तो आग हो गयी। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गयीं। आज आप निश्चय कर दीजिए की हिरिया उन्हीं की लौंड़ी है या मेरी भी।

वसुमति– वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूँगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आयी है और मेरी लौंड़ी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।

रोहिणी– सुना आप ने। हिरिया पर किसी का दावा नहीं है वह अकेली उन्हीं की लौंड़ी है।

ठाकुर– हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।

वसुमती वह सुनकर जल उठी। नागिन की भाँति फुफकार कर बोली-इस वक्त तो आप ने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानों यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते, सन्तान का मुंह देखने को न तरसते!

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