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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


विशालसिंह ने ठिठककर कहा– तुम्हारी ही लगायी हुई आग को तो शान्त कर रहा था, पर उलटे हाथ जल गये। क्या यह रोज-रोज तूफान खड़ा किया करती हो? में तो ऐसा तंग हो गया हूं कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं।

वसुमती– कहां भागकर जाओगे? कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया घसीटती हुई अपने कमरे में ले गयी और चारपाई पर बैठाती हुई बोली-औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन, दस दिन, रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं।

विशालसिंह-यहां वह खटवांस लेकर पड़ी, अब पकवान कौन बनाये?

वसुमती– तो क्या जहां मुर्गा न होगा, वहां सवेरा ही न होगा? ऐसा कौन-सा बड़ा काम है। मैं बनाये देती हूं।

विशालसिंह ने पुलकित होकर कहा– बस, कुलवन्ती स्त्रियों का यही धर्म है। विजय के गर्व से फूली हुई वसुमती आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। रामप्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह आ गयी और दोनों मिलकर काम करने लगीं।

विशालसिंह बाहर गये और कुछ देर गाना सुनते रहे, पर वहां जी न लगा। फिर भीतर चले आये और रसोई-घर के द्वार पर मोढ़ा डालकर बैठ गये। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह न बैठे और दोनों फिर लड़ मरें।

वसुमती ने कहा– अभी महारानी नहीं उठी क्या? इसमें छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। मुहब्बत तो इसे छू नहीं गयी। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे पर कसम ले लो, उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास न करे।

विशालसिंह-सब देखता हूं और समझता हूं निरा गधा नहीं हूं।

वसुमती– यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझ कर भी नहीं समझते। आदमी में सब ऐब हों, किन्तु मेहर-बस न हो।

विशालसिंह-मैं मेहर-बस हूं? मैं उसे ऐसी-ऐसी बातें कहता हूं कि वह भी याद करती होगी।

रामप्रिया-कड़ी बात भी हंसकर कही जाय, तो मीठी हो जाती है।

विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूं फटकारता हूं।

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