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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


वसुमती– डांटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

विशालसिंह-मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखो, कैसी फटकार बतायी।

वसुमती– क्या कहना है, जरा मूंछें खड़ी कर लो, लाओ पगिया मैं सवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें की कि भागते ही बने!

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा! रोहिणी रसोई के द्वार से दबे-पांव चली आ रही थी। मुंह का रंग उड़ गया। दांतों से ओठ दबाकर बोली-छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।

विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक-नेत्रों से देखकर कहा– बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गयी होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

वसुमती– ऊंह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहां तक डरे। आदमियों को बुलाओ, यह सब सामान यहां से ले जायं।

भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पथ्वी पाताल में चली गयी है, या किसी विराट, जन्तु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर-सागर में पांव रखते कांपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। एका-एक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह देहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहां जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे। और सब लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आंखें लाल किये कह रहे हैं-अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूं। जहां इच्छा हो जाय। अब इस घर में कदम न रखने दूंगा।

जब चक्रधर को रानियों के आपसी झगड़े और रोहिणी के घर से निकल जाने की बात मालूम हुई तो उन्होंने लपककर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दायें-बाये निगाहें दौड़ातें, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गये होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलायी दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप पहुंचे और उसे घर चलने के लिए समझाने लगे। पहले तो रोहिणी किसी तरह राजी न हुई लेकिन चक्रधर के बहुत समझाने-बुझाने के बाद वह घर लौट पड़ी।

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