उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
लेकिन अब तक बहुत-कुछ काम बेगार से चल गया था। मजूरों को भोजन मात्र मिल जाता था। अब नकद रुपयों की जरूरत सामने आ रही थी। राजाओं का आदर-सत्कार और अंगरेज हुक्काम की दावत-तवाजा तो बेगार में न हो सकती थी। खर्च का तखमीना पांच लाख से ऊपर था। खजाने में झमझी कौड़ी न थी। असामियों से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय न होता था। यहां तक कि केवल १५ दिन और रह गये।
सन्ध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेडूखां के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे कि दीवान साहब और मुंशीजी आकर खड़े हो गये।
विशालसिंह ने पूछा-कोई जरूरी काम है?
ठाकुर– हुजूर, उत्सव को अब केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपये की कोई सबील नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से ५ लाख कर्ज ले लिया जाय।
राजा– हरगिज नहीं।
दीवान-तो असामियों पर हल पीछे १॰ रु. चन्दा लगा दिया जाय।
राजा– मैं अपने तिलकोत्सव के लिए असामियों पर जुल्म न करूंगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही न हो।
दीवान-महाराज, रिसायतों में पुरानी प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे, किसी को आपत्ति न होगी?
मुंशी– गाते-बजाते आयेंगे और दे जायेंगे।
राजा– अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट न होगा और लोग खुशी से मदद देंगे तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक शिकायत न आये।
दीवान-हुजूर, शिकायत तो थोड़ी-बहुत हर हालत में होती ही है। इससे बचना असम्भव है। राजा और प्रजा का सम्बन्ध ही ऐसा है। प्रजाहित के लिए भी कोई काम कीजिए तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे १॰रु, बैठा देने से कोई ५ लाख रुपये हाथ आ जायेंगे। रही रसद, वह तो बेगार में मिलती ही है। आपकी अनुमति की देर है
मुंशी– जब सरकार ने कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं तो अनुमति का क्या प्रश्न? चलिए, अब हुजूर को तकलीफ न दीजिए।
राजा– बस, इतना खयाल रखिए कि किसी को कष्ट न होने पाये। आपको ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि असामी लोग सहर्ष आकर शरीक हों।
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