उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर इस भीड़ से निकलकर सीधे राजा के पास आये और बोले-महाराज मैं आप से कुछ विनय करना चाहता हूं।
राजा साहब ने त्योरियां बदल कर कहा– मैं इस वक्त कुछ नहीं सुनना चाहता।
चक्रधर– आप कुछ न सुनेंगे, तो पछतायेंगे।
राजा– मैं इन सबों को गोली मार दूंगा।
चक्रधर– दीन प्रजा के रक्त से राज-तिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं हो सकता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है मैं आपका शुभचिन्तक हूं। इसीलिए आपकी सेवा में आया हूं। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाये हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में न सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैम्प उस रक्त से सिंच जायेगा, उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मण्डल उखड़ जायेगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। सारी रियासत में हाहाकार मच जायेगा।
राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे, किन्तु इस समय उनका दिल कांप उठा। बोले-इन लोगों को अगर कोई शिकायत थी, तो इन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। मुझसे न कहकर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ों को घास नहीं दी और इस वक्त भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।
चक्रधर– आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह से कुछ भोजन नहीं मिला?
राजा– यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा-पूर्ण भोजन दिया जाय। क्यों दीवान साहब, क्या बात है?
हरसेवक-धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगायी हुई है।
मुंशी– दीनबन्धु यह लड़का बिलकुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, उसे सच समझ लेता है
राजा– मैं इसकी पूछ-ताछ करूंगा।
हरसेवक-हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। लोग सबसे कहते फिरते हैं कि किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाये, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।
राजा– बहुत ठीक कहते हैं। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूं, बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूं।
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