उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चौधरी इतनी देर में झाड़-पोंछकर उठ बैठा था। राजा साहब को देखते ही रोकर बोला-दुहाई है महाराज की। सरकार बड़ा अन्धेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।
राजा– तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पांव रखा, तो जान से मारा जाएगा।
चौधरी-सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?
राजा– काम न करोगे, तो जान ली जाएगी।
चौधरी-काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें?
राजा– क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो! तुम सब-के-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता।
चौधरी-क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुंह न खोले? अब तो सेवा-समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न करेगी।
राजा– अच्छा! तो तुझे सेवा-समिति वालों का घमण्ड है?
चौधरी-हई है, वह हमारी रक्षा करती है, तो क्या न उनका घमण्ड करें?
राजा साहब ओठ चबाने लगे-तो यह समिति वालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे हाथ कपट-चाल रहे हैं, लाला चक्रधर! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियां खाता है। देखता हूं वह मेरा क्या कर लेता है। इन मूर्खों के सिर से यह घमण्ड निकाल ही देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गये, तो आफत मचा देंगे।
चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमियों की सूरत देखकर जिनके प्राण-पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय निःशंक और निर्भय बन्दूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमियों ने बाड़े की लकड़ियां और रस्सियां काट डालीं और हजारों आदमी उधर, से भड़भड़ाकर निकल पड़े, मानों कोई उमड़ी हुई नदी बांध तोड़कर निकल पड़े। उसी वक्त एक ओर से सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिये।
उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान-सी पड़ गयी, जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाय। हजारों आदमियों ने घेर लिया-भैया आ गये! भैया आ गये! की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।
चक्रधर ने ऊंची आवाज से कहा– क्यों भाइयों, तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?
चौधरी-भैया, यह भी कोई पूछने की बात है। तुम हमारे मालिक हो, सामी हो, सहाय हो।
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