उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
सन्ध्या का समय था। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारी हो रही थी। सिपाहियों की वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गयी थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। किसी कैम्प में घास न थी और ठाकुर हरसेवक हंटर लिए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आंखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं।
चौधरी ने हाथ बांधकर कहा– हुजूर, घास तो रात ही को पहुंचा दी गयी थी। हां, इस बेला अभी नहीं पहुंची। आधे आदमी तो मांदे पड़े हुए हैं।
मुंशी– बदमाश! झूठ बोलता है, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाये कैसे दौड़ेंगे?
एक युवक ने कहा– हम लोग तो बिना खाये आठ दिन से घास दे रहे हैं, घोड़े क्या बिना खाये एक दिन भी न दौड़ेंगे?
चौधरी डण्डा लेकर युवक को मारने दौड़ा पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झटपट उसे चार-पांच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दिये। नंगी देह, चमड़ी फट गयी खून निकल गया।
चौधरी ने ठाकुर साहब और युवक के बीच में खड़े होकर कहा– हुजूर! क्या मार ही डालेंगे? लड़का है कुछ अनुचित मुंह से निकल जाय तो क्षमा करनी चाहिए। राजा को दयावान होना चाहिए।
ठाकुर साहब आपे से बाहर हो रहे थे। एक चमार का यह हौसला कि उनके सामने मुंह खोल सके। वहीं हंटर तान कर चौधरी को जमाया। बूढ़ा आदमी, उस पर कई दिन का भूखा, खड़ा भी मुश्किल से हो सकता था, हंटर पड़ते ही जमीन पर गिर पड़ा। बाड़े में हलचल पड़ गयी। हजारों आदमी जमा हो गये। कितने ही चमारों ने मारे डर के खुरपी और रस्सी उठा ली थी और घास छोलने जा रहे थे। चौधरी पर हंटर पड़ते देखा, तो रस्सी-खुरपी फेंक दी और आकर चौधरी को उठाने लगे।
ठाकुर साहब ने तड़पकर कहा– तुम सब अभी एक घंटे में घास लाओ, नहीं तो एक-एक की हड्डी तोड़ दी जायेगी।
एक चमार बोला-हम यहां काम करने आये हैं, जान देने नहीं आये हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरे लात खायें। हमारा जन्म इसीलिए थोड़े ही हुआ है? जिससे चाहें काम कराइए, हम घर जाते हैं।
मुंशी– जिसने बाड़े के बाहर कदम रखा, उसकी शामत आई। तोप पर उड़ा दूंगा।
लेकिन चमारों के सिर पर भूत सवार था। बूढ़े चौधरी को उठाकर सब-के-सब एक गोल में बाड़े के द्वार की ओर चले। सिपाहियों की कवायद हो रही थी। ठाकुर साहब ने खबर भेजी और बात-की-बात में उन सबों ने आकर बाड़े का द्वार रोक लिया। सभी कैम्पों में खलबली पड़ गयी। तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगीं। राजा साहब अपने खेमें में तिलक के भड़कीले-सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गये। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बन्दूक लिए खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुंचे।
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