उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर– क्या करूं मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, फिर भी हम अपने भाइयों की गर्दन पर छुरी फेरने से बाज नहीं आते। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशाएं थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढंग अख्तियार कर लिया। प्रजा से डण्डों के जोर से रुपये वसूल किये जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता। सबसे ज्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मन्त्री और इस अत्याचार के मुख्य कारण हैं।
सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उद्दण्ड होकर कहा– आप असामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी न दें कोई देगा ही नहीं तो ये लोग कैसे ले लेंगे?
चक्रधर को हंसी आ गयी बोले-तुम मेरी जगह होती, तो असामियों को मना कर देतीं?
मनोरमा– अवश्य। खुल्लम-खुल्ला कहती, खबरदार! राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे। मैं राजा के आदमियों को इतना पिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम ही न लेते।
चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कुराकर बोले-अगर दीवान साहब खफा हो जाते?
मनोरमा– तो खफा तो जाते! किसी के खफा हो जाने के डर से सच्ची बात पर परदा थोड़े ही डाला जाता है।
इस विषय पर फिर कुछ बातचीत न हुई, लेकिन चक्रधर यहां से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था-क्या अब यहां मेरा आना उचित है? आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अन्तराल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे जिन्हें यहां न रहना चाहिए था।
१॰
गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैम्प भर गया। दीवान साहब ने कैम्प में ही बाजार लगवा दिया था, वहीं रसद-पानी का भी इन्तजाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे, किन्तु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हरबोंग-सा मचा रहता था।
मेहमानों के आदर-सत्कार की तो धूम थी और वे मजदूर जो छाती फाड-फाड़कर काम कर रहे थे भूखों मरते थे। काम लेने को सब थे, पर भोजन को पूछने वाला कोई न था। चमार पहर रात रहे घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते, मगर कोई उनका पुरसांहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियां सुनाते, क्योंकि उन्हें दूसरे पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता था। बेगारों से न सहा जाता था, इसलिए कि उनकी आतें जलती थीं। दिन-भर धूप में जलते, रात-भर क्षुधा की आग में। असन्तोष बढ़ता जाता था। न जाने कब सब-के-सब जान पर खेल जायं, हड़ताल कर दें।
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