उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धान्तों के पक्के, आदर्श पर मिटने वाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन, वह राजा साहब के उद्दण्ड शब्दों से जरा भी भयभीत न हुए। तने हुए सामने आये और बोले– आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने तक बेरोक-टोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जाएगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गयीं? और इतनी जल्दी? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है।
राजा साहब कहां तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहां यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गये प्रभुता ने आंसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले– मैं कहता हूं, यहां से चले जाओ।
चक्रधर– जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।
राजा– मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।
चक्रधर– तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहां से हटा ले जाऊं?
यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायेंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिलमिलाकर बन्दूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुन्दा पीछे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पांच हजार आदमी बाड़े को तोड़कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आये और नरेशों के कैम्प की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैम्प में लूट मच गयी है। दूकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे, दर्शकगण अपनी धोतियां संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गयी। जितने बेफिक्र, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आए थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहां तक कि नरेशों के कैम्प तक पहुंचते-पहुंचते उनकी संख्या दूनी हो गयी।
राजा– रईस अपनी वासनाओं के सिवा किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसन्द नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परावह कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान-ध्यान में मग्न था और लोग तिलक-मंडप जाने की तैयारियां कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त-चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतन्त्रता अपनी विविध लीलाएं दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैम्प में पहुंच जाते, तो महा-अनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता, किन्तु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अंग्रेजी कैम्प में १॰-१२ आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अन्दाधुन्ध बन्दूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बन्दूकों की परवा न की, उसे अपनी संख्या का बल था।
जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।
गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गये।
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