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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चौधरी– देखो भाई, घबराना नहीं। जो गिरता है उसे गिरने दो, आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी की।

एक मजदूर– बढ़े आओ, बढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो…

उसके मुंह से पूरी बात भी न निकल पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया समस्या थी कि आगे जायं या पीछे? सहसा एक युवक ने कहा– मारो, रुक क्यों गये? सामने पहुंचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की।

अंग्रेजी कैम्प से फिर गोलियों की बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, उसके गिरते ही समूह में खलबली पड़ गयी। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियां किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैम्प से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आये थे और साफ नजर आ रहे थे

एक चमार बोला– साहब लोग गोली चला रहे हैं। चलो, उन्हीं सबों को पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाये हुए हैं।

वे अंग्रेजी कैम्प की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैम्प के फाटक तक आ पहुंचे। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खड़े बन्दूकें छोड़ रहे थे; लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो– चार तो भागे, दो– तीन मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पांच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। सामने पहुंचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किये। यहां तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था, दूसरे की बांह टूट गयी थी। केवल तीन आदमी रह गये थे और वही इन आदमियों को रोके रखने के लिए काफी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गये थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुंह से लार टपक रही थी।

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ता हुआ आकर बोला– बस, बस, क्या करते हो। ईश्वर के लिए हाथ रोको। क्या गजब करते हो। लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैड़कों आदमी उन्मत्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय-जयकार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।

एक मजदूर ने कहा– हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।

चक्रधर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा– कोई एक कदम आगे न बढ़े खबरदार।

मजदूर– यारो, बस, एक हमला और।

चक्रधर– हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे।

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