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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


जिले के मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा– बाबू साहब, खुदा के लिए हमें बचाइए।

फौज के कप्तान मिस्टर सिम बोले– हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपका सिफारिश करेगा।

एक मजदूर– हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहां थे? यारों, क्या खड़े हो, बाबूजी का क्या बिगड़ा है। मारे तो हम गये हैं न? मारो बढ़ के।

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा– अगर तुम्हें खून की ऐसी प्यास है, तो मैं हाजिर हूं। मेरी लाश को पैरों से कुचलकर तभी तुम आगे बढ़ सकते हो।

मजदूर– भैया, हट जाओ, हमने बहुत मार खाई है, बहुत सताये हए हैं, इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो!

चक्रधर– मेरा लहू इस ज्वाला को शान्त करने के लिए काफी नहीं है?

मजदूर– भैया, तुम शान्त-शान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है। हमें जो चाहता है, मारता है; जो चाहता है, पीसता है; तो क्या हमीं शान्त बैठे रहें? शान्त रहने से तो और भी हमारी दुर्गति होती है। हमें शान्त रहना मत सिखाओ हमें मरना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।

चक्रधर– अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे। संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान ने उद्धार के जो उपाय बताये हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।

मजदूर– हमारी फांसी तो हो ही जाएगी। तुम माफी तो न दिला सकोगे।

मिस्टर जिम– हम किसी को सजा न देंगे।

चक्रधर– इनाम मिले या फांसी, इसकी क्या परवा। अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटो से पाक है, उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह से तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।

मजदूर– अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा; लेकिन तुम्हारी यही मरजी है, लौट जाते हैं। आखिर फांसी पर तो चढ़ना ही है।

एक क्षण में सारा कैम्प साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

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