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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


इन आदमियों के जाते ही वे लोग इनके साथ हो लिये, जो पहले लूट के लालच से चले आये थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है। ग्राहक-दूकानदार और दूकानें सब न जाने कहां लुप्त हो जाती हैं, उसी भांति एक क्षण में सारे कैंप में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक-मण्डप से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने-गिनाये आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह-क्रिया कर रहे हों।

अंधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उसके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे।

एकाएक कई सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेजी कैम्प की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।

वहां कचहरी लगी हुई थी। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुरसत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीनें चढ़ाये खड़े थे। अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किये सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुंह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आंखें लाल किये मेज पर हाथ रखे हुए कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा– राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है।

चक्रधर आवेश में आकर बोले– अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुःख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थान्ध अमलों के फन्दों से बचाने का उपाय करते हैं, और उन्हें अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करने का उपदेश दे देते हैं। हम चाहते हैं कि मनुष्य बनें और मनुष्य की भांति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहें। अगर इसे कोई भड़काना समझता है तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।

जिम– तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें भड़काता?

चक्रधर– यहां उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहां से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी न आती।

राजा– हमें परम्परा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम छोड़ नहीं सकते। आप असामियों को बेगार देने से मना करते हैं, और आज के हत्याकाण्ड का सारा भार आपके ऊपर है।

चक्रधर– कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परम्परा से सहते आए हैं।

जिम– हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकद्दमा चलायेगा। तुम dangerous (खतरनाक) आदमी है।

राजा– हुजूर, मैं इनके साथ कोई सख्ती नहीं करना चाहता, केवल यह प्रतिज्ञा लिखाना चाहता हूं कि यह अथवा इनके सहकारी लोग मेरी रियासत में न जायें।

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