उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 274 पाठक हैं |
‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
यह सोचते-सोचते उन्हें अपना खयाल आया। मैं तो कोई आन्दोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राणरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आंखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त तक करता रहूंगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिन्ता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुःख होगा, अम्माजी रोयेंगी; लेकिन मजबूरी है। जब बाहर भी जबान और हाथ-पांव बांधे जाएंगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हां, जरा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाये हुए था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबन्द न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफा और कोई वस्तु नहीं होती। तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले– क्या करते हो, बेटा? यहां तो बड़ा अंधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है; बैठ लो। इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन-सी है। हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूं। बारे आज दोपहर को जाके सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यो करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। या वहां न चलना चाहो, तो यहीं एक हलफनामा लिख दो। देर करने से क्या फायदा। तुम्हारी अम्मा रो-रोकर जान दे रही हैं।
चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा– अभी तो मैंने कुछ निश्चय नहीं किया सोचकर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुए।
वज्रधर– कैसी बातें करते हो, बेटा? यहां नाक कटी जा रही है , घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो– सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? चलो; हलफनामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं लगी।
चक्रधर– मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़ियां डालने पर राजी नहीं होती।
चक्रधर जब प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले– अच्छा बेटा, लो, अब कुछ न कहेंगे। मैं तो जानता था कि तुम जन्म के जिद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था; लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेद-कुरेद कर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। जितना रोना हो, रो लो।
कठोर-से-कठोर हृदय में मातृ-स्नेह की कोमल स्मृतियां संचित होती हैं। चक्रधर कातर होकर बोले– आप माताजी को समझाते रहियेगा। कह दीजिएगा, मुझ जरा भी तकलीफ नहीं है।
|