उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर हंस-हंसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। सबकी आंखों में जल भला हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा ‘जय-जय’ का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियां खड़ी रो रही थीं। सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गयी। उसके हाथों में फूलों का एक हार था। वह उनके गले में डाल दिया और बोली– अदालत ने तो आपको सजा दे दी, पर इतने आदमियों में से एक भी ऐसा न होगा, जिसके दिल में आपसे सौगुना प्रेम न हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्म-बल और सच्चे कर्त्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिए, हमारी शुभकमानाएं आपके साथ हैं।
चक्रधर ने केवल दबी आंखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उन्हें शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या खयाल कर रहे होंगे। सामने राजा विशालसिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरु हरसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी जबान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की यह वीर-भक्ति उसकी बालक्रीड़ा मात्र है।
एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बन्द गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले।
१२
चक्रधर की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मनोरमा, राजा विशालसिंह को फटकार सुनाने गई थी। उसकी दोनों आंखें बीर बहूटी हो रही थीं, भवें चढ़ी हुईं उस समय राजा साहब कोप-भवन में मारे क्रोध के मूंछें ऐंठ रहे थे। सारे राजमहल में सन्नाटा था। मनोरमा उनके सामने चली गई और उन्हें सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली– उसका कण्ठ आवेश से कांप रहा था– महाराज! मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि क्या प्रभुता और पशुता एक ही वस्तु है, या उनमें कुछ अन्तर है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें मैं देवता समझती हूं, उन पर आपके हाथ क्योंकर उठे?
मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौन्दर्य ने राजा साहब को परास्त कर दिया। सौन्दर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन गया। विशालसिंह ने अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए कहा– मनोरमा, बाबू चक्रधर वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन पर्यन्त दुःख रहेगा।
मनोरमा के सौन्दर्य ने राजा साहब पर जो जादू का-सा असर डाला था वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। जब वह कमरे से चली गयी तो विशालसिंह द्वार पर खड़े उसकी ओर ऐसे तृषित नेत्रों से देखते रहे, मानों उसे पी जायेंगे, उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हुई।
दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। उनका विशेष आदर-सत्कार करने लगे। दो-तीन बार उनके मकान पर भी गए और ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्ठता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशाएं और भी चमक उठीं। हां, अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वह राजा साहब का आना-जाना पसन्द न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। यह एक कंटक था और उसे हटाये बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुंच सकते थे। बेचारे इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशीजी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया।
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