उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ायीं और सबसे पहले धन्नासिंह दारोगाजी पर झपटा। करीब था कि संगीन की नोक उनके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए ‘धन्नासिंह ईश्वर के लिए…‘दारोगाजी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्नासिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कन्धे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गयी। दाहिने हाथ से कन्धे को पकड़कर बैठ गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गयी– ये शब्द उनकी पशु-वृत्तियों को दबा बैठे। धन्नासिंह ने बन्दूक फेंक दी और फूट-फूटकर रोने लगा। ग्लानि के आवेश में बार-बार चाहता है कि वह संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने जोर से उसे जकड़ रखा है कि उसका कुछ बस नहीं चलता।
दारोगा ने मौका पाया तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्नासिंह ने देखा तो एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बन्दूक उठाकर उनके पीछे दौड़ा। करीब था कि दारोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कन्धा पकड़े, लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गये। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बन्दूक फेंककर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रखकर रोने लगा।
चक्रधर ने कहा– सिपाहियों को छोड़ दो।
धन्नासिंह– बहुत अच्छा, भैया! तुम्हारा जी कैसा है?
सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुए। उन्हें देखते ही सारे कैदी भय से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे। धन्नासिंह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी-अपनी बन्दूकें संभालीं और एक कतार में खड़े हो गये।
जिम– वेल दारोगा, क्या हाल है?
दारोगा– हुजूर के अकबाल से फतह हो गयी। कैदी भाग गये।
जिम– यह कौन आदमी पड़ा है?
दारोगा– इसी ने हम लोगों की मदद की है, हुजूर। चक्रधर नाम है।
जिम– इसी ने कैदियों को भड़काया होगा?
दारोगा– नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर शांत किया।
जिम– तुम कुछ नहीं समझता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है।
दारोगा– देखने में तो हुजूर, बहुत सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।
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