लोगों की राय

उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

274 पाठक हैं

‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


गुरुसेवक ने पूछा– कहां से आ रही हो?

मनोरमा– घर से ही आ रही हूं। जेलवाले मुकदमें में क्या हो रहा है?

गुरुसेवक– अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।

मनोरमा– बाबूजी पर जुर्म साबित हो गया?

गुरुसेवक– जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर हैं, और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी, अगर बरी कर दूं, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हां, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्म-बलिदान का प्रश्न है। सारी देवता– मण्डली मुझ पर कुपित हो जाएगी।

मनोरमा– बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरपराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफी है, लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हें देवता तुमसे भले ही सन्तुष्ट हो जायं; पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जाएगा।

गुरुसेवक– चक्रधर बिलकुल बेकसूर तो नहीं है। पहले-पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता।

मनोरमा– उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफारिश करनी चाहिए कि– महान संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उसकी मीआद घटा दी जाय।

गुरुसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कुराहट से छिपाकर कहा– आग में कूद पड़ूं? आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफसर नाराज हो जायेंगे। आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिये जायं। इसकी जरा भी चिन्ता न कीजिए।

गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले– नौकरी की मुझे परवा नहीं है, मनोरमा! मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है– ‘स्वार्थ।’ जानता हूं, यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।

मनोरमा– भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मूल हैं। गवाहों के बयान हो गये कि नहीं?

गुरुसेवक– हां, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।

मनोरमा– तो लिखिए, मैं बिना लिखवाये यहां से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आयी हूं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book