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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर के पास कभी-कभी एक बूढ़ा वार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हंसमुख आदमी था। चक्रधर को प्रसन्नमुख देखकर दो-चार बातें कर लेता था। उससे उन्हें बन्धुत्व-सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस-तम्बाकू की इच्छा हो, हमसे कहना। चक्रधर को खयाल आया, क्यों न उससे एक पेन्सिल और थोड़े कागज के लिए कहूं। कई दिनों तक तो वह इसी संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूं या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे– क्यों जमादार, यहां कहीं कागज-पेंसिल नहीं मिलेगी?

बूढ़े वार्डर ने सतर्क भाव से कहा– मिलने को तो मिल जाएगा; पर किसी ने देख लिया तो क्या होगा?

इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक-बुद्धि, जो क्षण-भर के लिए मोह में फंस गयी थी, जाग उठी। बोले-नहीं, मैं यों ही पूछता था।

इसके बाद उस वार्डर ने फिर कई बार पूछा– कहो तो पिंसन-कागज ला दूं? मगर चक्रधर ने हरदफा यही कहा– मुझे जरूरत नहीं।

बाबू यशोदानन्दन को ज्योंही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे; पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रिआयत भी न की गई थी, पर यशोदानन्दन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा जोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली– अपने लिए नहीं, अहल्या के लिए। उस विरहिणी की दशा दिनों-दिन खराब होती जाती थी। जब से चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह कैदियों की-सी जिन्दगी बसर करने लगी। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्मनिष्ठा और बढ़ गयी। जब वह हाथ जोड़कर आंखें बन्द कर के ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसे मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थनाएं उस मातृ-स्नेह पूर्ण अंचल की भांति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती हैं।

जिस दिन अहल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गयी है, उसे आनन्द के बदले भय होने लगा। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मुर्छा न आ जाय, कहीं मैं चिल्ला-चिल्ला कर रोने न लगूं।

प्रातःकाल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वन्दना करती रही फिर यशोदानन्दन जी के साथ गाड़ी में बैठकर जेल चली।

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