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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


जेल में पहुंचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गयी। अहल्या का कलेजा धड़क रहा था। उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढाढ़स हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आये। उनके सिर पर कनटोप था और देह पर आधी आस्तीन का कुरता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उनका रंग पीला पड़ गया था; दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आंखें भीतर को घुसी हुई थीं: पर मुख पर एक हल्की-सी मुक्सकराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसकी आंखों से बे-अख्तियार आंसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी-सी उठकर खड़ी हो गयी। अब दो-के-दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हजारों बातें हैं, उद्गार-पर– उद्गार उठते हैं, दोनों एक दूसरे को कनखियों से देखते हैं, पर किसी के मुंह से शब्द नहीं निकलता। अहल्या सोचती है, क्या पूछूं, इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूं, इसका एक-एक अंग इसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है।

इसी असमंजस और कण्ठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को १॰ मिनट हो गये। यहां तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली– तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट और बाकी हैं।

चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले– अहल्या, तुम इतनी दुबली हो बीमार हो क्या?

अहल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा– नहीं तो मैं बिलकुल अच्छी हूं आप अलबत्ता इतने दुबले हो गये हैं कि पहचाने नहीं जाते।

चक्रधर– खैर, मेरे दुबले होने के तो कारण हैं; लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही हो? कम-से-कम अपने को इतना तो बनाए रखो कि जब मैं छूटकर आऊं तो मेरी कुछ मदद कर सको, अपने लिए नहीं तो मेरे लिए तुम्हें अपनी रक्षा करनी चाहिए। बाबूजी तो कुशल से हैं?

अहल्या– हां, आपको बराबर याद किया करते हैं मेरे साथ वह भी आये हैं। पर यहां न आये। आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है; पर आराम करने की उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाजा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गयी है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा; लेकिन अब फिर वही हाल है।

अहल्या ने ये बातें महत्त्व की समझकर न कहीं, बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले– दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गये होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?

अहल्या– मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गये थे, जगदीशपुर के राजा साहब ने आपके पिताजी को ५॰ रु. मासिक बांध दिया है, आपकी माता जी रोया करती हैं। छोटी रानी साहबा की आपके घर वालों पर विशेष कृपा दृष्टि है।

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