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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा छोटी रानी साहिबा कौन?

अहल्या– रानी मनोरमा, अभी थोड़े ही दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है।

चक्रधर– यह तो बड़ी दिल्लगी हुई, मनोरमा का विवाह विशालसिंह के साथ? मुझे तो अब भी विश्वास नहीं आता। बाबाजी ने नाम बताने में गलती की होगी।

अहल्या– बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। सुनती हूं, राजा साहब बिलकुल उनकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह कहती हैं, वही होता है। बाबूजी चन्दा मांगने गये थे, तो रानीजी ने ही पांच हजार दिये। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।

सहसा लेडी ने कहा– वक्त पूरा हो गया। वार्डर, इन्हें अन्दर ले जाओ।

चक्रधर क्षण-भर भी और न ठहरे, अहल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गये। अहल्या ने सजल-नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूटकर रोने लगी।

१५

फागुन का महीना आया, ढोल-मजीरे की आवाजें कानों में आने लगीं। मुंशी वज्रधर की संगीत-सभा भी सजग हुई। यों तो कभी-कभी बारहों मास बैठक होती; पर फागुन आते ही बिला नागा मृदंग पर थाप पड़ने लगी। उदार आदमी थे फिक्र को कभी पास न आने देते। अपने शरीर को वह कभी कष्ट न देते थे। लड़का जेल में है, घर में स्त्री रोती-रोती अन्धी हुई जाती है, सयानी लड़की घर में बैठी हुई है, लेकिन मुंशीजी को कोई गम नहीं। पहले २५ रु. में गुजर करते थे, अब ७५ रु. भी पूरे नहीं पड़ते। जिससे मिलते हैं हंसकर सबकी मदद करने को तैयार। वादे सबके करते हैं, किसी ने झुककर सलाम किया और प्रसन्न हो गये। दोनों हाथों से वरदान बांटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मुहल्ले के कई बेफिक्रों को जिन्हें कोई टके को भी न पूछता, रियासत में नौकर करा दिया– किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर किसी को कारिन्दा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं, अपना यश गाना शुरू करते हैं और उसमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मुंशीजी किसी को निराश नहीं करते, और न कुछ कर सकें, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। जो काम पहुंच से बाहर होता है, उसके लिए भी हां-हां कर देना, आँखें मारना, उड़न घाइयां बताना, इन चालों में वह सिद्ध हैं, मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशीजी का भाग्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिलाकर अपना मकान पक्का कर लिया, बनिया बोरों अनाज मुफ्त में भेज देता, धोबी कपड़े की धुलाई नहीं लेता। सारांश यह कि तहसीलदार साहब के ‘पौ बारह’ हैं। तहसीलदारी में जो मजे न उड़ाये थे, वह अब उड़ा रहे हैं।

रात के ८ बजे थे। झिनकू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशीजी मसनद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा। इतने में रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गयी। मुंशीजी नंगे सिर, नंगे पांव दौड़े जरा भी ठोकर खा जाते तो उठने का नाम न लेते। मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा– दौड़िए नहीं, दौड़िए नहीं। मैं आप ही के पास इस वक्त एक बड़ी खुशखबरी सुनाने आयी हूं। बाबूजी कल यहां आ जायेंगे।

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