उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मुंशी– क्या लल्लू?
मनोरमा– जी हां, सरकार ने उनकी मियाद घटा दी है।
इतना सुनना था कि मुंशीजी बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हाँफते हुए निर्मला से बोले– सुनती हो, लल्लू कल आयेंगे। मनोरमा रानी दरवाजे पर खड़ी हैं।
यह कहकर उलटे पांव फिर आ पहुंचे।
मनोरमा– अम्माजी क्या कर रही हैं, उनसे मिलती चलूं।
मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आंखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाए खड़ी थी। जी चाहता था, इसके पैरों के नीचे आंखें बिछा दूं। मेरे धन्य भाग!
एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कण्ठ से बोली– माताजी, धन्य भाग्य कि आपके दर्शन हुए! जीवन सफल हो गया।
निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गयी। बस, खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भांति मातृ-स्नेह की रंगत में बहा दिया।
जब मोटर चली गयी, तो निर्मला ने कहा– साक्षात देवी है।
दस बज रहे थे। मुंशीजी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के फूले न समाते थे। मारे खुशी के खाया भी न गया। जल्दी से दो-चार कौर खाकर बाहर भागे और अपने इष्ट मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे निश्चय किया गया कि प्रातःकाल शहर में नोटिस बाटी जाय और सेवा-समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।
प्रभात के समय मनोरमा कमरे में आयी और मेज पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में आकर वह एक कुरसी पर बैठ गये। मनोरमा ने पूछा– रियासत का बैंड तैयार है न?
हरसेवक– हां, उसे पहले ही हुक्म दिय जा चुका है।
मनोरमा– जुलूस का प्रबन्ध ठीक है न? मैं डरती हूं, कहीं भद्द न हो जाय।
हरसेवक– श्रीमान राजा साहब की राय है कि शहर वालों को जुलूस निकालने दिया जाय, हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।
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