उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा– राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है। अगर सन्मार्ग पर चलने में रियासत जब्त भी हो जाय, जब भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूंगी।
दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा– बेटी, मैं तुम्हारे भले को कहता हूं। तुम नहीं जानती जमाना कितना नाजुक है।
मनोरमा उत्तेजित होकर बोली– पिताजी, इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहीत हूं, लेकिन मेरी आत्मा उसे ग्रहण नहीं करती। अभी ७ बजे हैं। ८ बजते-बजते आपको स्टेशन पहुंच जाना चाहिए। मैं ठीक वक्त पर पहुंच जाऊंगी। जाइए।
दीवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो वह चक्रधर के स्वागत के अवसर पर देना चाहती थी वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गयी थी कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तक खबर न हुई, जब तक उन्हें उनके फेफड़ों ने खांसने पर मजबूर न कर दिया।
मनोरमा ने चौंककर आंखें उठायीं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम-विह्वल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली– क्षमा कीजियेगा, मुझे आपकी आहट ही न मिली। क्या आप देर से बैठे हैं
राजा– नहीं तो, अभी-अभी आया हूं। तुम लिख रही थीं, मैंने छेड़ना उचित न समझा। मैं चाहता हूं, जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि कम-से-कम इस शहर के इतिहास में अमर हो जाय।
मनोरमा– यही तो मैं भी चाहती हूं।
राजा– मैं सैनिकों के आगे फौजी वर्दी में रहना चाहता हूं।
मनोरमा ने चिन्तित होकर कहा– आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहीं उनका स्वागत कीजिएगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह करना ही पड़ेगा। सरकार यो भी हम लोगों पर सन्देह करती है, तब तो वह सत्तू बांधकर हमारे पीछे पड़ जाएगी।
मनोरमा फिर लिखने लगी, और यह राजा साहब को वहां से चले जाने का संकेत था; पर राजा साहब ज्यों-के-त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख-कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी।
सहसा घड़ी में ९ बजे। मनोरमा कुरसी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी वृक्ष की छाया में विश्राम करने वाले पथिक की भांति उठे और धीरे-धीरे द्वार की ओर चले। द्वार पर पहुंचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले– मैं भी चलूं, तो क्या हरज?
मनोरमा ने करुण कोमल नेत्रों से देखकर कहा– अच्छी बात है, चलिए। रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने की जगह न थी। अन्दर का चबूतरा और बाहर का सहन आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे परे विद्यालयों के छात्र थे, रंग-बिरंग की वर्दियां पहने हुए; और सेवा-समितियों के सेवक, रंग-बिरंग की झण्डियां लिये हुए मनोरमा नगर की कई महिलाओं के साथ सेवकों के बीच में खड़ी थी। बरामदे में राजा विशालसिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर के रईस और नेता जमा थे। मुंशी वज्रधर इधर-उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे।
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