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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


ठीक दस बजे गाड़ी दूर से धुआं उड़ाती हुई दिखाई दी। अब तक लोग अपनी जगह पर कायदे के साथ खड़े थे; लेकिन गाड़ी के आते ही सारी व्यवस्था हवा हो गयी। गाड़ी आकर रुकी और चक्रधर उतर पड़े। मनोरमा भी अनुराग से उन्मत्त होकर चली; लेकिन तीन-चार पग चली थी कि ठिठक गयी और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा। सेवा-समिति का मंगल-गान समाप्त हुआ, तो राजा साहब ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की ओर से उनका स्वागत किया। सब लोग उनसे गले मिले और यह जुलूस सजाया जाने लगा। चक्रधर स्टेशन के बाहर आये और तैयारियां देखीं, तो बोले– आप लोग मेरा इतना सम्मान करके मुझे लज्जित कर रहे हैं। मुझे तमाशा न बनाइये।

संयोग से मुंशीजी वहीं खड़े थे। ये बातें सुनीं, तो बिगड़कर बोले– तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे। तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे। आदमी कोई काम करता है, तो रुपये के लिए या नाम के लिए। अगर दो में एक भी हाथ न आये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।

यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर का रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया था और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ । चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर बैठे।

जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुंचा, यहां मुंशीजी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना तना हुआ था। निश्चय हुआ कि यहीं सभा हो और चक्रधर का अभिनन्दन पत्र दिया जाय। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनाने वाली थी। लेकिन जब पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुंह से एक शब्द न निकला।

मनोरमा को असमंजस में देखकर राजा साहब खड़े हुए और उसे धीरे से कुरसी पर बिठाकर बोले– सज्जनों, रानी जी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरी बातों में कहा! कोयल के स्थान पर कौआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंहे ने ले ली है। आप लोगों को ज्ञान न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहब के गुरु रह चुके हैं; और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं । अपने गुरु का सम्मान करना शिष्य का धर्म है; किन्तु रानी साहबा का कोमल हृदय इस समय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए जगह ही नहीं रही। इसके लिए वह क्षम्य हैं। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दीनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते है, आपने धर्म और जाति-प्रेम की उपासना की है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूं।

एक सज्जन ने टोका– आप ही ने तो उन्हें सजा दिलायी थी?

राजा– हां, मैं इसे स्वीकार करता हूं। राज्य के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है, जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।

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