उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर– नहीं मनोरमा, मुझे जाने दो।
मनोरमा : अच्छी बात है, जाइए; लेकिन एक बात तो आपको माननी पड़ेगी मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।
यह कहकर उसने अपना हैंडबैग चक्रधर की तरफ बढ़ाया।
चक्रधर– अगर न लूं तो?
मनोरना : तो मैं अपने हाथों से आपका बोरिया-बंधना उठाकर घर में रख आऊंगी।
चक्रधर– आपको इतना कष्ट उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिये लेता हूं। शायद वहां भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी। इस बैग का वजन ही बतला रहा है।
मनोरमा घर में आयी, तो निर्मला बोली-माना कि नहीं बेटी?
मनोरमा– नहीं मानते। मनाकर हार गयी।
मुंशी– जब आपके कहने से न माना तो फिर किसके कहने से मानेगा?
तांगा आ गया। चक्रधर और अहल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अरपनी मोटर पर बैठकर चली गयी। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर खड़े रह गये।
१८
सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में नि:स्वार्थ का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाये थी कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े ही दिनों में वह नेताओं की श्रेणी में आने लगे। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भाँति निस्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवाकार्य के लिए दे सकते थे। द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर को इस काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा-सा मकान किराये पर ले लिया था और बड़ी किफायत से गुजर करते थे। वहाँ रुपये का नित्य अभाव रहता था। चक्रधर को अब ज्ञान होने लगा कि गृहस्थी में पड़कर कुछ-न-कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिन्ता न थी; लेकिन अहल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे।
अगर चक्रधर को अपना ही खर्च संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता; क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचारपत्रों में लिखकर वह अपनी जरूरत भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी पर वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता ही सहायता करनी पड़ती।
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