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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…

२१

रुक्मिणी ने निर्मला से त्यौरियां बदलकर कहा–क्या नंगे पांव ही मदरसे जायेगा?

निर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा–मैं क्या करुं? मेरे पास रुपये नहीं हैं।

रुक्मिणी–गहने बनवाने को रुपये जुड़ते हैं, लड़के के जूतों के लिए रुपयों में आग लग जाती है। दो तो चले ही गये, क्या तीसरे को भी रुला-रुलाकर मार डालने का इरादा है?

निर्मला ने एक सांस खींचकर कहा–जिसको जीना है, जियेगा, जिसको मरना है, मरेगा। मैं किसी को मारने-जिलाने नहीं जाती।

आजकल एक-न-एक बात पर निर्मला और रुक्मिणी में रोज ही झड़प हो जाती थी। जब से गहने चोरी गये हैं, निर्मला का स्वभाव बिलकुल बदल गया है। वह एक-एक कौड़ी दांत से पकड़ने लगी है। सियाराम रोते-रोते चाहे जान दे दे, मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते और यह बर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है, निर्मला स्वयं अपनी जरूरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फटकर तार-तार न हो जाये, नयी धोती नहीं आती। महीनों सिर का तेल नहीं मंगाया जाता। पान खाने का उसे शौक था, कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहां तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हे से शिशु का भविष्य विराट् रुप धारण करके उसके विचार-क्षेत्र पर मंडराता रहता।

मुंशीजी ने अपने को सम्पूर्णतया निर्मला के हाथों मे सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दबे रहते हैं। वह अब बिना नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होंने जवानी में भी न की थी। आंखें खराब हो गयी हैं, डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमुनियत कर दी है, पाचनशक्ति पहले ही दुर्बल थी, अब और भी खराब हो गयी है, दमें की शिकायत भी पैदा हो चली है, पर बेचारे सबेरे से आधी-आधी रात तक काम करते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उन पर जरा भी दया आती। वही भविष्य की भीषण चिन्ता उसके आन्तरिक सद्भावों को सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुनकर झल्ला पड़ती है। वह एक कोड़ी भी खर्च करना नहीं चाहती।

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