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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…

उस दिन से निर्मला का रंग-ढंग बदलने लगा। उसने अपने को कर्तव्य पर मिटा देने का निश्चय कर लिया। अब तक नैराशय के सन्ताप में उसने कर्तव्य पर ध्यान ही न दिया था। उसके हृदय में विप्लव की ज्वाला-सी दकहती रहती थी, जिसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञा हीन-सा कर रखा था। अब उस वेदना का वेग शान्त होने लगा। उसे ज्ञात हुआ कि मेरे लिए जीवन का कोई आनन्द नहीं। उसका स्वप्न देखकर क्यों इस जीवन को नष्ट करूँ। संसार में सब-के-सब प्राणी सुख सेज ही पर तो नहीं सोते? मैं भी उन्हीं अभागों में हूँ। मुझे भी विधाता ने दु:ख की गठरी ढोने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उतर नहीं सकता। उसे फेंकना भी चाहूँ, तो नहीं फेंक सकती।

उस कठिन भार से चाहें आँखों में अन्धेरा छा जाय, चाहे गर्दन टूटने लगे, चाहे पैर उठाना दुस्तर हो जाय; लेकिन वह गठरी ढोनी ही पड़ेगी। उम्र का कैदी कहाँ तक रोयेगा? रोये भी तो कौन देखता है? किसे उस पर दया आती है? रोने से काम में हर्ज होने के कारण उसे और यातनाएँ ही तो सहनी पड़ती हैं।

दूसरे दिन वकील साहब कचहरी से आये तो देखा-निर्मला की सहास्य मूर्ति अपनी कमरे के द्वार पर खड़ी है। वह अनिन्द्य छवि देख कर उनकी आँखें तृप्त हो गयीं। आज बहुत दिनों के बाद उन्हें यह कमल खिला हुआ दिखलाई दिया। कमरे में एक बड़ा-सा आईना दीवार से लटका हुआ था।

उस पर एक पर्दा पड़ा हुआ था। आज उसका पर्दा उठा हुआ था, वकील साहब ने कमरे में कदम रखा, तो शीशे पर निगाह पड़ी। अपनी सूरत साफ-साफ दिखायी दी। उनके हृदय में चोट-सी लग गयी। दिन भर परिश्रम से मुख की कान्ति मलिन हो गयी थी, भाँति-भाँति के पौष्टिक पदार्थ खाने पर भी गालों की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। तोंद कसी होने पर भी किसी मुँहजोर घोड़े की भाँति बाहर निकली हुई थी। आईने के ही सामने, किन्तु दूसरी ओर ताकती हुई निर्मला भी खड़ी हुई थी। दोनों सूरतों में कितना अन्तर था! एक रत्न जटिल विशाल भवन था, दूसरा टूटा-फूटा खँडहर।

वह उस आईने की ओर न देख सके। अपनी यह हीनावस्था उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट गये, उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती कामनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छवि उनके हृदय का शूल बन गयी।

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