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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मुंशीजी घर से तो निकले; लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गये। उनके पाँव ही न उठते थे। कलेजा धड़-धड़ कर रहा था। साँप बड़ा क्रोधी जानवर है। कहीं काट ले तो मुफ्त के प्राण से हाथ धोना पड़े। बोले-डरता नहीं हूँ। साँप ही तो है, शेर तो नहीं। मगर साँप पर लाठी असर नहीं करती है; जाकर किसी को भेजूँ किसी के घर से भाला लाये।

यह कहकर मुंशी जी लपके हुए बाहर चले गये। मंसाराम बैठा खाना खा रहा था। मुंशी जी तो बाहर चले गये, इधर वह खाना छोड़ अपनी हॉकी का डंडा हाथ में ले, कमरे में घुस ही तो पड़ा और तुरन्त चारपाई खींच ली। साँप मस्त था, भागने के बदले फन निकालकर खड़ा हो गया। मंसाराम ने चटपट चारपाई की चादर उठाकर साँप के ऊपर फेंक दी और ताबड़तोड़ तीन-चार डंडे कसकर जमाये। साँप चादर के अन्दर तड़प कर रह गया। तब उसे डंडे पर उठाये हुए बाहर चला। मुंशीजी कई आदमियों को साथ लिये चले आ रहे थे। मंसाराम को साँप लटकाये आते देखा तो सहसा उनके मुँह से चीख निकल पड़ी। मगर फिर सँभल गए और बोले-मैं तो आ ही रहा था, तुमने क्यों जल्दी की? दे दो, कोई फेंक आए।

यह कहकर बहादुरी के साथ रुक्मिणी के कमरे के द्वार पर जाकर खड़े हो गए और कमरे को खूब देखभाल कर मूछों पर ताव देते हुए निर्मला के पास जाकर बोले- मैं जब तक आऊँ-जाऊँ, मंसाराम ने मार डाला। बेसमझ लड़का डंडा लेकर दौड़ पड़ा। साँप हमेशा भाले से मारना चाहिए। यही तो लड़कों में ऐब है। मैंने ऐसे-ऐसे कितने साँप मारे हैं। साँप को खिला-खिलाकर मारता हूँ। कितनों ही को मुट्ठी से पकड़कर मसल दिया है।

रुक्मिणी ने कहा–जाओ भी, देख ली तुम्हारी मर्दानगी।

मुंशी जी झेंपकर बोले-अच्छा जाओ, मैं डरपोक ही सही, तुमसे कुछ इनाम तो नहीं माँग रहा हूँ। जाकर महाराज से कहो, खाना निकाले।

मुंशीजी तो भोजन करने गये और निर्मला द्वार की चौखट पर खड़ी सोच रही थी-भगवान! क्या इन्हें सचमुच कोई भीषण रोग हो रहा है? क्या मेरी दशा को और भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा कर सकती हूँ, सम्मान कर सकती हूँ, अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूँ; लेकिन वह नहीं कर सकती, जो मेरे किये नहीं हो सकता। अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं। आखिर यह मुझसे क्या चाहते हैं-समझ गयी! आह! यह बात पहले ही नहीं समझी थी, नहीं तो इसको क्यों इतनी तपस्या करनी पड़ती, क्यों इतने स्वाँग भरने पड़ते।

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