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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मेरे मुँह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींचकर मुझ पर झपट पड़े और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्लाकर वार करते थे, खटाके की आवाज होती थी और मैं बिजली की तरह झपटकर उनके वारों को काट देता था। कोई दस मिनट तक तीनों ने खूब तलवार के जौहर दिखाये, पर मुझ पर रेफ तक न आयी। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार नहीं थी। यदि कहीं तलवार होती, तो एक-एक को जीता न छोड़ता।

खैर, कहाँ तक बयान करूँ? उस वक्त मेरे हाथों की सफाई देखने काबिल थी। मुझे खुद आश्चर्य हो रहा था, कि यह चपलता मुझमें कहाँ से आ गयी। जब तीनों ने देखा कि यहाँ दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और पीठ ठोककर बोले-जवान तुम-सा वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों तीन सौ पर भारी गाँव-के-गाँव ढोल बजाकर लूटते हैं पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। यह कहकर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए।

निर्मला ने गम्भीर भाव से मुस्कुराकर कहा–इस छड़ी पर तलवारों के बहुत से निशान बने हुए होंगे?

मुंशीजी इस शंका के लिए तैयार न थे पर कोई जवाब देना आवश्यक था, बोले-मैं वारों को बराबर खाली कर देता था। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ी भी तो उचटती हुई जिससे कोई निशान नहीं पड़ा सकता था।

अभी उनके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी, कि सहसा रुक्मिणी देवी बदहवास दौड़ती हुई आयीं और हाँफते हुए बोलीं-तोता, तोता है कि नहीं? मेरे कमरे में साँप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठकर भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले फुफकार रहा है, जरा चलो तो! डंडा लेते चलना।

तोताराम के चेहरे का रंग उड़ गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं मगर मन के भावों को छिपाकर बोले-साँप यहाँ कहाँ? तुम्हें धोखा हुआ होगा। कोई रस्सी होगी।

रुक्मणि-अरे, मैंने अपनी आँखों से देखा है। जरा चलकर देख लो न। हैं, हैं! मर्द होकर डरते हो?

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