उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
2 पाठकों को प्रिय 364 पाठक हैं |
अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
तोताराम ने उस वक्त तो यह बातें हँसी में उड़ा दीं, जैसा, कि एक व्यवहार कुशल मनुष्य को करना चाहिए था, लेकिन इनमें कुछ बातें उनके मन में बैठ गयीं! उनका असर पड़ने में कोई सन्देह न था। धीरे धीरे रंग बदलने लगे, जिसमें लोग खटक न जायँ। पहले बालों से शुरू किया; फिर सुर्मे की बारी आयी, यहाँ तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था; लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।
उस दिन से वह रोज अपनी जवाँमर्दी का कोई न कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं इन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूँग की दाल और मोटे आटे के दो फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज हो, उसके छैलपन पर उन्माद का सन्देह हो तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का क्या रंग जमता, हाँ, उसे उन पर दया आने लगी।
क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उन पर होती है, जो अपने होश में हो, पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियाँ लेती, उनका मजाक उड़ाती जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हाँ इसका ध्यान रखती थी कि वह समझ न जायँ। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित कर रहा है। यह सारा स्वांग केवल इसीलिए तो है कि मैं अपना दुःख भूल जाऊँ। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊँ?
एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बाँके बने हुए सैर-सपाटे करके लौटे और निर्मला से बोले आज तीन चोरों का समाना हो गया। जरा शिवपुर की तरफ चला गया था। अँधेरा था ही। ज्योंहीं रेल की सड़क के पास पहुँचा, तो तीन आदमी तलवार लिए हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यकीन मानो तीनों काले देव थे। मैं बिलकुल अकेला पास में सिर्फ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बाँधे हुए, होश उड़ गये। समझ गया कि जिन्दगी का यहीं तक साथ था, मगर मैंने भी सोचा, मरता ही हूँ, तो वीरों की मौत क्यों न मरूँ? इतने में एक आदमी ने ललकार कर कहा–रख दे तेरे पास जो कुछ हो और चुपके से चला जा।
मैं छड़ी सँभालकर खड़ा हो गया और बोला-मेरे पास तो सिर्फ यह छड़ी है, और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।
|