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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


तोता–अजी, कोई पाखण्डी होगा, बेवकूफों को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डॉक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पाँच की बात होती तो कहता, जरा दिल्लगी ही सही। ५००/-बड़ी रकम है।

नयन–तुम्हारे लिए ५००/-कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरा पास तो भाई ५००/- होते, तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी के एक घण्टे की कीम ५००/- से कहीं ज्यादा है।

तोता–अजी, कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जड़ी-बूटी जो कि बिना हर्र फिटकरी के रंग चोखा हो जाय। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हो।

नयन–तो फिर रंगीलेपन का स्वाँग रचो। यह ढीला-ढाला कोट फेंकों, गजब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदार पाजामा, गले में सोने की जंजीर पड़ी हुई, सिर पर जयपुरी साफा बँधा हुआ, आँखों में सुर्मा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पिचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबन्द बाँधों। जरा तकलीफ तो होगी, पर अचकन सज उठेगी। खिजाब मैं ला दूँगा। सौ-पचास गजलें याद कर लो, और मौके-मौके से शेर पढ़ो। बातों में रस भरा हो। ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फ्रिक नहीं है, बस जो कुछ है, प्रियतमा ही है। जवाँमर्दी और साहस के काम करने का मौका ढूँढते रहो। रात को झूठ-मुठ करो-चोर-चोर-और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो।

हाँ, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आ जाय और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी कलई खुल जायेगी और मुफ्त के उल्लू बनोगे। उस वक्त, तो जवाँमर्दी इसी में है कि दम साधे पड़े रहो, जिससे वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई, लेकिन ज्योंही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछलकर बाहर निकलो और तलवार लेकर ‘कहाँ? कहाँ?’ कहते दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक महीना मेरी बातों का इम्तहान करके देखो। अगर वह तुम्हारा दम न भरने लगे, जो जुर्माना कहो, वह दूँ।

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