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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


इन्द्रनारायण घर पहुँचा तो माँ ने उसको गले लगाकर प्यार किया। उसने राधा के सिर पर हाथ फेरकर प्यार दिया। राधा रो पड़ी थी। उससे छोटा रमाकान्त था। रमा को उसके पिता ने स्कूल की पढ़ाई नहीं कराई थी। उसे ‘लघु कौमुदी’ पढ़ाकर संस्कृत का घर पर ही अध्ययन कराना आरम्भ कर दिया था। रमा चौदह वर्ष का था और संस्कृत बोलने तथा लिखने लगा था। रामाधार ने राधा को, जो अब दस वर्ष की हो चुकी थी, संस्कृत पढ़ानी आरम्भ कर दी थी।

एक-दो दिन आराम करने में व्यतीत हो गये। इन्द्र ने देखा कि पिता जी घर की चौपाल पर बैठे हुक्का पी रहे हैं और उनके सामने बैठा रमाकान्त ‘रघुवंश’ नाटक पढ़ रहा है। रामाधार अर्थ समझाकर व्याख्या कर रहा था। महाराज दलीप के सद्गुणों का वर्णन करते हुए रामाधर बता रहा था कि नन्दिनी गाय की सेवा करते हुए दलीप बन में घूमा करता था।

इसको सुनकर इन्द्रनारायण ने पूछ लिया था, ‘‘बाबा! एक राजा के लिये यह कोई गुण की बात नहीं कि वह अपना राजपाट छोड़, गुरु की गाय की सेवा करने लगे।’’

‘‘बेटा! यह अलंकार है। कवि के वर्णन की शैली है यह। गाय सब जगत् की माता है। और जगज्जननी की सेवा और रक्षा करना तो राजा का धर्म है ही।’’

‘‘बाबा! एक तो गाय जगज्जननी नहीं है। भारत छोड़ अन्य किसी देश में इसको माता नहीं माना जाता। वहाँ तो बैल का मांस खाने में अच्छा और पौष्टिक माना जाता है।’’

‘‘यह कहाँ की बात कहते हो, बेटा?’’

‘‘अंग्रेज़ों के देश की, जिनके हम अधीन हैं। अमेरिका, जो दुनिया में सबसे धनी देश है, और प्रायः सब योरुपीय देशों में गो-मांस खाया जाता है।’’

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