|
उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘जी।’’
‘‘मगर वह तो सबसे छोटी है। तीन उससे बड़ी हैं। पहले उनकी शादी करने के बाद ही तो इसकी शादी करूँगा।’’
‘‘हुजूर! मैंने तो उसी को देखा है, जो कल बेहोश हो गयी थी।’’
‘‘वह सबसे छोटी है।’’
‘‘मुझको तो वही पसन्द है।’’
‘‘देखो बरखुरदार! औरत तो औरत ही है। यदि तुम पसन्द करो तो सबसे बड़ी के लिये खयाल किया जा सकता है। बेगम, उसकी माँ, से बात करनी होगी। मुझको तो कोई एतराज नहीं, मगर वह उसको दूसरी जगह देना पसन्द करेगी क्या, कह नहीं सकता।’’
‘‘मगर हजरत! मैं तो उसके साथ शादी के लिए अर्जी कर रहा हूँ जो कल बेहोश हो गयी थी। कितनी उमर है उसकी?’’
‘‘वह सोलहवें साल में जा रही है। सबसे बड़ी, जिसके मुताल्लिक मैं कह रहा हूँ, बाईस साल की है।’’
‘‘अच्छी बात है। आप छोटी के मुताल्लिक सोचिये।’’
‘‘मुश्किल यह है कि छोटी की शादी की तो तीनों बड़ी की शादी कहीं न हो सकेगी।’’
‘‘कोई सूरत निकालिये। मैं आपसे फिर, जब आप कहें, मिल लूँगा।’’
‘‘पर एक बात बताओ, अनवर! तुम्हारी अंग्रेज बीवी तो तुम्हारी दूसरी शादी पसन्द नहीं करेगी।’’
‘‘वह छोड़कर भाग जायेगी।’’
|
|||||

i 









