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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो क्या उसका इस प्रकार बिना कष्ट के मर जाना तुम ठीक समझते हो? मैं समझता हूँ कि यदि वह सुधर जाता तो समाज का उपयोगी अंग बन सकता था।’’
‘‘इन्द्रजी!’’ कमलाकर ने प्रसन्न-वदन कहा, ‘‘जो हुआ सो ठीक ही हुआ है। वह वायुमण्डल को गंदा ही तो कर रहा था।’’
इन्द्र ने कमलाकर के मुख पर प्रसन्नता देखी तो विस्मय में देखता रह गया। इस पर कमलाकर उसके विस्मय को देखकर हँस पड़ा।
‘‘क्यों भैया! हँसे क्यों हो?’’
‘‘भाग्य बड़ा प्रबल है, इन्द्रजी! मैंने उसके सिर पर चोट इस कारण लगाई थी कि वह जीवन-भर निबुद्धि हो घूमता फिरे, परन्तु चोट कुछ अधिक जोर से लग गयी और वह चल बसा।’’
‘‘तो यह तुमने किया है?’’
‘‘अपनी बहन पर झूठा लांछन सहन नहीं हो सका।’’
इसके पश्चात् दोनों एक-दूसरे से कुछ बोल नहीं सके। कमलाकर यह विचार करने लगा था कि उसने इन्द्र को यह रहस्य बताकर भूल तो नहीं की और इन्द्र यह विचार कर रहा था कि क्या ईश्वरीय न्याय को अपने हाथ में ले लेना उचित है।
स्टेशन पर पहुँच गाड़ी चढ़ने से पूर्व कमलाकर ने पूछ लिया, ‘‘तो विष्णु के मर जाने का आपको बहुत शोक है?’’
‘‘नहीं, यह बात नहीं। मैंने यह समझ लिया है कि ईश्वर को ऐसा ही स्वीकार था।’’
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