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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इसी समय उनको साथ के कमरे में ऐना दिखाई दी। वे चौंक उठे और उठकर सीधा उसी कमरे में चले गये।
ऐना आईने के सामने खड़ी बाल और अपने वस्त्र ठीक कर रही थी। नवाब साहब ने जाते ही पूछ लिया, ‘‘तुम? तुम यहाँ क्या कर रही हो?’’
‘‘नवाब साहब!’’ ऐना ने घूमकर देखा और कुछ झुककर सलाम करती हुई बोली, ‘‘जरा बाल सँवार रही थी। मैं आपको सलामालेकुम करने के लिये आने वाली थी। इसी की तैयारी में लगी थी।’’
‘‘तो बिना बाल सँवारे तुम मेरे सामने भी नहीं आना चाहतीं?’’
‘‘आपके सामने आने के लिये तो सजावट की जरूरत और भी ज्यादा है, नवाब साहब! आपके दिल में अपने लिए हमदर्दी पैदा करने की मुझको बहुत जरूरत है।’’
‘‘किसलिये?’’
‘‘एक तो मेरा बच्चा आपके पास गिरवी पड़ा हुआ है। मेरे दिल में उससे मिलने की ख्वाहिश पैदा हो रही है। हजरत! मैं माँ हूँ और अपने इस जज्बे को काबू में नहीं रख सकती।’’
ऐना ने आगे कह दिया, ‘दूसरे, आपके साहबजादे मेरा खर्चा तारीख पर नहीं देते। मुझको यहाँ चक्कर लगाने की जरूरत पड़ती रहती है। इसके मुताल्लिक आपसे सिफारिश के लिए दरख्वास्त करनी थी।’’
‘‘ओह! तो क्या तुम समझती हो कि सजकर मेरे सामने आने से तुम्हारी अर्जी में ताकत आ जायेगी?’’
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