उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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ज्ञानेन्द्रदत्त यह समझा था कि विवाह की बात पक्की है और अब तो केवल लग्न मुहूर्त निकलवाना शेष है। परन्तु जब साधना ने रामाधार की बात विस्तारपूर्वक सुनाई तो ज्ञानेन्द्रदत्त विस्मय में मुख देखता रह गया। वह इसकी बात पर कई दिन तक मनन करता रहा। उसके मस्तिष्क में बार-बार यह बात पर आती थी–‘‘वेद-शास्त्र विद्या का भंडार है और उसके पढ़ने में सहायक हो, वह विद्या देने वाला है। स्कूल-कॉलेजों की पढ़ाई तो वेद-शास्त्रों से अरुचि उत्पन्न करती है, अतः वह अविद्या है। उसको पढ़ना ब्राह्मण का कर्तव्य नहीं।’’
फिर उसका कथन था, ‘‘ब्राह्मण, श्रत्रिय तथा शूद्र तो धन कमाने के लिये नहीं होते और वैश्य वर्ग के लोग इन तीनों वर्णों का पालन-पोषण करने के लिये धन कमाते हैं। समाज की इस व्यवस्था की भाँति, आज की परिस्थिति में परिवार में भी होना चाहिये। यदि एक भाई ब्राह्मण का कार्य करे तो दूसरा वैश्य का कार्य कर सकता है, जिससे परिवार का पालन-पोषण हो सके।’’
ज्ञानेन्द्रदत्त कई दिन के विचार-विनिमय के पश्चात् इस परिणाम पर पहुँचा कि यदि रामाधार वास्तव में इन विचारों का आदमी है तो वह एक सच्चे ब्राह्मण की भाँति की भाँति बिना लोभ-लालच के अपना कर्त्तव्य-पालन कर रहा है। तब तो वह एक महान् व्यक्ति है और उसके परिवार से संबंध बनाना सौभाग्य की बात है।
उसने अपने मन को संशय निवारण करने के लिये महेन्द्र से पूछ लिया, ‘‘उस दिन तुमने दुरैया के पंडितजी को अपनी योजना बताई थी क्या?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘क्या बताया था?’’
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