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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘वह कैसे?’’

इस बात का उत्तर महेन्द्र की माता ने दिया। वह समीप ही बैठी पिता-पुत्र में हो रही बातचीत को सुन रही थी। उसने कहा, ‘‘मैं तीन दिन दुरैया में रही थी। अंतिम दिन मैंने राधा को समीप बिठा प्यार देकर पूछा, ‘राधा बेटी! इतना पढ़ लिखकर क्या करोगी? न तो इस पढ़ाई से कहीं नौकरी मिलेगी, न ही तुमको नौकरी की कोई आवश्यकता है।’’

‘मौसी!’ उसने कहा था, ‘मैं ब्राह्मण-कन्या किसी की नौकरी नहीं करूँगी। भगवान् से मेरा यही निवेदन है कि वह मुझको शूद्र का कार्य करने के लिये विवश न करे।’

‘मेरा कहना था, ‘भगवान् बहुत दयालु है। वह तुम जैसी विदुषी लड़की को नौकरी के लिये नहीं, प्रत्युत् राज्य करने के लिये तैयार कर रहा है।’

‘‘नहीं मौसी! मैं क्षत्रिय का कार्य भी नहीं करना चाहती।’

‘तो पति के घर पर कैसे रहेगी?’

‘किसी ब्राह्मण से विवाह नहीं हुआ तो यह देह छोड़ दूँगी।’

‘‘दस वर्ष की एक बालिका को यह बात करते सुन मैंने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘कैसे देह छोड़ दोगी?’ ’’

‘यह विद्या मैं अभी सीख रही हूँ। मौसी! यह बात कठिन प्रतीत नहीं होती।’

‘‘मैंने उसको सांत्वना देते हुए कहा, ‘तुम्हारे मस्तक पर सौ वर्ष तक सौभाग्यवती बन जीवन व्यतीत करना लिखा है।’

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