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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘इस पर उसने कह दिया, ‘मौसी! आशीर्वाद दो कि भगवान् ऐसा ही करे।’ ’’

‘‘यह तो सब सिखाई बातें हैं माँ! वह बिना समझे ही ये सब बातें कह रही होगी। वह भला क्या जाने कि सौभाग्यवती के क्या अर्थ हैं अथवा विधवा और सधवा में क्या अन्तर है?’’

इस पर ज्ञानेन्द्रदत्त ने कह दिया, ‘‘और तुम बिना सीखे ही बातें करते हो क्या? अपनी बात का वह अर्थ समझती है अथवा नहीं, कहना कठिन है। हाँ, यह सिद्ध हो गया कि तुम अपनी बात का अर्थ नहीं समझते। समझते होते तो तुम उनसे यह न कहते कि एक भाई कमायेगा तो वह दूसरे को क्यों देगा? और फिर तुमने यह कह दिया कि उस दूसरे भाई के लोग, जिनके लिये वह ब्राह्मण का कार्य करता है, क्यों न धन दें। ये दोनों बातें तुमने योरुपीय शिक्षा-पद्धति में सीखीं और इनका अर्थ जाने बिना कह दीं।

‘‘मैं पूछता हूँ कि तुम घटनावश मेरे घर में उत्पन्न हो गये। इसका यह अर्थ कैसे निकल आया कि मैं तुमको खाने, पहनने तथा पढ़ाई इत्यादि के लिये दूँ? क्यों तुम्हारे विवाह पर खर्च करूँ? क्यों तुम्हारे लिये योग्य पत्नी ढूँढ़ता फिरूँ?’’

‘‘तो आप न करिये।’’

‘‘तुमने अपनी शिक्षा के अनुसार कह दिया कि न करूँ, परन्तु चिरंजीव! यदि न करता तो तुम यह कहने के लिये यहाँ उपस्थित ही नहीं होते।’’

‘‘मेरा कहने का अभिप्राय तो यह है कि आपके मन में यह भावना कि आप अपनी सन्तान की रक्षा करें, समाज ने डाली है। समाज को एक भारी संख्या में घटकों की आवश्यकता है। दूसरे समाजों से युद्ध में बलि देने के लिये युवको की आवश्यकता है। वे युवक बिना माता-पिता के सहयोग के न तो उत्पन्न हो सकते हैं, न ही पल सकते हैं। इस कारण यह भावना बन गयी है। इसमें कोई स्वाभाविक बात नहीं कही।’’

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