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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


ज्ञानेन्द्र हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘यदि तुम्हारी युक्ति मान भी लें तब भी इसमें कारण तो है न। समाज को जीवित रखना प्रत्येक समाज के घटक का कर्तव्य है, अतः समाज के नियम पालन करना धर्म है।

‘‘यही तो पंडित रामाधार कह गये हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र धन कमाने के लिये नहीं बने। धन वैश्य कमाता है और सबको खिलाता है। यही बात परिवार की है।

‘‘इसके अनुकूल मैं तुमको वैश्य बना शेष परिवार का पालन का भार देना चाहता हूँ और तुम कुछ और ही कह रहे हो।’’

‘‘पिताजी! मैं आपकी बात समझता तो हूँ और वैसा करने का विचार भी रखता हूँ। परन्तु आज संसार में लोग इसको उचित नहीं समझते। सब लोग चाहते हैं कि उनकी लड़की ऐसे घर में विवाही जाय, जहाँ वह और उसके पति के अतिरिक्त अन्य कोई उनको सुख-भोग का साझीदार न हो सके। इसी विचार से मैंने यह बात कही थी। मेरा विचार था कि वे प्रसन्न होंगे। मुझको क्या मालूम था कि वे उलटा इससे नाराज हो जाएँगे तथा संबंध बनाने से इन्कार कर देंगे।’’

‘‘एक बात उन्होंने कही है कि तुमको अपनी बुद्धि का विकास करना चाहिये, तभी विवाह सम्भव हो सकेगा।’’

‘‘इस समय तो मैं एक ही कार्य में लगा हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे पास चार-पाँच हजार रुपया एकत्रित हो जाये तो मैं कुछ व्यवसाय करूँ। मुझको आपका यह चिकित्सा-कार्य, दो-दो पैसे की पुड़ियाँ देना पसन्द नहीं और फिर आप न तो किसी के घर जाकर रोगी देखने की फीस लेते हैं, और न ही औषधि का दाम माँगते हैं। यदि कोई नहीं दे जाता तो आप मुस्कराकर चुप कर रहते हैं।

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