उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘देखो बेटा! यह चिकित्सा-कार्य एक ब्राह्मण का कार्य है। जैसे मानसिक विकास के लिए शिक्षा देना ब्राह्मण का अधिकार है, वैसे ही शरीर का विकास तथा सुधार करना भी ब्राह्मण के अधिकार की बात है। हम यह मानते हैं कि दोनों कार्य करना हमारा कर्तव्य है, भले ही इनसे कुछ प्राप्त न हो। यह समाज का कर्तव्य है कि वह ऐसा कार्य करने वालों का जीवन-भरण करे।’’
‘‘वह तो समाज अर्थात् सरकार कर रही है। स्कूल और अस्पताल खोले जा रहै हैं।’’
‘‘यही तो हम नहीं चाहते। सरकार स्कूल खोल रही है, उस शिक्षा के लिए जिसको वह पसंद करती है। उसकी शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाने वाले शूद्र-वृत्ति के लोग हैं। वे अपने वेतन के लिये अपने स्वामी की आज्ञा पालन करना चाहते हैं। शिक्षा में स्वतन्त्रता होनी चाहिये। यदि कोई वेद-शास्त्र पढ़ाना चाहता है और पढ़ने वाले हैं, तो पढ़ाने वाले को जीवन चलाने के साधन मिलने चाहिये। ऐसा समाज नहीं करना चाहता। यही बात चिकित्सा की है। इसी कारण मैं समाज से स्वतन्त्र रूप में इनका प्रबन्ध करना चाहता हूँ।
‘‘देखो, यदि तुम नहीं करोगे तो मैं तुमको विवश नहीं करूँगा। मैं अपने कार्य में स्वतंत्र रहने के लिये अन्य साधन ढूँढँगा।’’
‘‘पिताजी! क्या होगा और क्या नहीं होगा, यह साधन मिलने के पश्चात् ही विचार लिया जायेगा।’’
इसका अर्थ यह था कि रामाधार की लड़की से विवाह का प्रबन्ध नहीं हो सका।
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