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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


लड़की का रंग गेहुंआ था। मोटी नाक और आंखे भी मोटी ही थीं। गोल-मटोल मुख और ठिगना कद।

मदन उसके साथ-साथ चलता हुआ मन में विचार कर रहा थ कि शुकर है यह वह नहीं है। लड़की मन विचार कर रही थी कि पहले इसके विचार जान ले, तब स्वयं को प्रकट करेगी।

लड़की मदन को कोठी के ड्राइंगरूग में ले गई। उसको सोफे पर बैठने का संकेत करते हुए उसने घंटी बजाई। बैरा आया तो उसने कहा, ‘‘साहब के लिए जल लाओ।’’

‘‘नहीं मुझे प्यास नहीं है।’’

‘‘चिन्ता न कीजिये। चाय तो महेश्वरी के आने पर ही मिलेगी। अभी जल तो पी लीजिये।’’

बैरा जल लेने के लिए चला गया तो लड़की ने पूछा, ‘‘महेश्वरी से आपका कब का परिचय है?’’

‘‘अभी परिचय नहीं है। कम-से-कम मैंने उनको देखा नहीं है। उनको मेरा नाम और पता किस प्रकार विदित हुआ और उन्हे मुझसे क्या कार्य है, यह मैं कुछ नहीं जानता।’’

‘‘निश्चित ही कोई आवश्यक कार्य होगा। वह निमन्त्रण-पत्र आप साथ लाये हैं क्या?’’

‘‘नहीं, वह तो घर पर ही रह गया है।’’ मदन ने अपनी जेब टटोलते हुए कहा।

‘‘ओह, एक बात समझ में आ रही है। आपका शुभ नाम श्री मदन स्वरूप है क्या?’’

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