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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘क्या यही उसकी प्रगतिशीलता के लक्षण हैं?’’

‘‘मैं तो समझती हूं स्त्री जाति का, लज्जा स्वाभाविक आभूषण है। यदि स्त्री को लज्जा न रहे तो फिर वह पुरुष ही बन जाये।’’

‘‘आज तो स्त्री-पुरुष परस्पर कंधे-से-कंधा भिड़ाकर चलें तभी निर्वाह हो सकता है।’’

‘‘वह हो जायेगा, परन्तु विवाह के बाद। कुछ भी हो, जब हम पति का विचार करती हैं तो स्वाभाविक रूप में कुछ बात, जो हृदय के कोमल पटलों में छिपी रहती है, सामने आने लगती है। भविष्य की मधुर रातों के दृश्य दिखाई देते हैं। इससे कुछ संकोच और कुछ लज्जा का अनुभव होना स्वाभाविक ही है। मुझे तो अपनी बहिन पर दया आ रही है। वह आप सदृश सुन्दर युवक को देखने और घुल-मिलकर बातें करने से वंचित रह गई है। उसने फोन पर बताया है कि वह कॉलेज हॉल में बैठी अपने हृदय की धड़कन को वश में करने का यत्न कर रही है।’’

‘‘मेरी निराशा का तो एक कारण यह भी है कि मैं भी उस सुन्दरी के रूप-लावण्य को देखने से वंचित रह गया हूं। क्या वह आपसे अधिक सुन्दर है?’’

‘‘उसके पूर्ण सौन्दर्य का विवरण तो मैं बता नहीं सकती। स्त्री के सौन्दर्य का वास्तविक परिचय उसके हृदय और कर्मो में छिपा रहता है। वह परिचय तो मैं दे नही सकती। जहां तक शारीरिक सौन्दर्य का प्रश्न है, हम दोनो एक ही माता-पिता की सन्तान हैं।

‘‘आपका शुभ नाम?’’

‘‘सिद्धेश्वरी।’’

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