उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
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जब मदन को यह विदित हुआ कि उसके साथ डेढ़ घण्टे तक बात करने वाली ही महेश्वरी थी, तो जहां वह उसकी रूपरेखा से निराशा अनुभव करने लगा, वहां उसके वाक्चातुर्य और हास्य रस के भाव तथा सतर्कता पर प्रसन्न भी हुआ। वह घर पहुंच इस विषय पर विचार करने लगा कि इस साधारण रूपरेखा, परन्तु प्रखर बुद्धि की लड़की को अपनी पत्नी बनाये अथवा नहीं। वह निर्णय नहीं कर सका। कभी मन में विचार आता कि ऐसी चतुर पत्नी पाकर जीवन में मजा आ जायेगा। कभी सोचता था कि उसकी पत्नी की साधारण रूपरेखा उसको भी अनाकर्षक बना देगी। आज भारत में अनेक महापुरुषों की महानता में उनकी स्त्रियों का सौन्दर्य महान कारण सिद्ध हो रहा था।
इस प्रकार की द्विविधा में फंसा हुआ वह अपने कमरे में अपने सामने एक पुस्तक रखे हुए, परन्तु उसके एक अक्षर को भी पढ़े बिना, देख रहा था। इस समय उसका बाबा आया और पूछने लगा, ‘‘मदनस्वरूप!’’ जब से यह इंजीनियर बना था बाबा और दादी के लिए वह मदन से मदनस्वरूप बन गया था–‘‘तुम उस लड़की को देखने कब जाओगे?’’
‘‘बाबा! मैं उसे देख आया हूं।’’
‘‘कैसी है?’’
‘‘बाबा! इस बात को छोड़ो। काला रंग, मोटे-मोटे नक्श, ठिगना कद।’’
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