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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


मदन समझ गया कि महेश्वरी को पहले ही आशंका हो गई थी कि वह उसका आलिंगन और चुम्बन करेगा। अत: उससे बचने के लिए वह इसको अपने साथ लाई है। इससे उसके मन में पुनः निराशा होने लगी। उसने उद्धिग्न होकर पूछ लिया, ‘‘और आप समझती हैं कि दो प्रमियों के बीच में खड़े होकर आपने कोई शुभ कार्य किया है?’’

‘‘कहां खड़ी हूं मैं? आप परस्पर प्रेम करते हैं तो क्या मेरे आने से वह प्रेम शिथिल पड़ गया है?’’

‘‘परन्तु सभ्यता के नाते हम आपके सामने अपने प्रेम को अभिव्यक्त तो नहीं कर सकते!’’

‘‘क्यों, कर क्यों नहीं सकते? जो प्रेम किसी अन्य की उपस्थिति में प्रकट नहीं किया जा सकता, वह प्रेम नहीं हो सकता। वह कुछ चोरी-चोरी अनियमित, अवांछित और अहितकर बात ही हो सकती है।

‘‘देखिये, जब आपने कल इसको निमन्त्रण दिया था तो कुछ कहा था। उससे इसने अनुमान लगाया कि आप बातचीत के अतिरिक्त भी कुछ करने वाले हैं, जो प्रायः स्त्री-पुरुष विवाह के उपरान्त ही करना स्वीकार करते हैं। उस परिस्थिति से बचने के लिए यह मुझे साथ लाई है। आप इसको प्रेम समझते हैं। मैं और ये इसको शरीर का गुण मानते हैं। प्रेम तो मन और आत्मा का विषय है।’’

‘‘देखिये बहिनजी! छोड़िये आप इस बात को। यह मन, आत्मा, परमात्मा मैं सुनना नहीं चाहता। आज का विज्ञान इसको मानता नहीं। अक्ल इसका समर्थन नहीं करती।’’

इतना कहकर वह उठा और रसोई घर से चाय, जो उसकी दादी तैयार कर रही थी, ट्रे में लगा कर ले आया। वह चाय लाया तो महेश्वरी चाय बनाने लगी। चाय बनाते हुए ही उसने पूछा, ‘‘आप मास में कितने पत्र लिखा करेंगे?’’

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