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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


मदन मन-ही-मन चिढ़ गया था, परन्तु गुरनाम कौर के सम्मुख वह अपनी चिढ़ को व्यक्त करना नहीं चाहता था। इसलिए उसने अपनी निराशा और क्रोध-भाव को भीतर-ही-भीतर दबाकर मुस्कुराते हुए गुरनाम कौर की ओर देखा और बोला, ‘‘मैं आपका अति आभारी हूं जो आपने यहां आने का कष्ट किया।’’

‘‘मैं तो अपनी सखी के लिए आई हूं। इस कारण धन्यवाद, यदि करना ही हो, तो महेश्वरी को करना चाहिये। इसने मुझे बताया था कि आपमें तथा इसमें जीवन के विषय में मतभेद हो रहा है। इनके और आपके भीतर केवल सैक्स का आर्कषण ही एक वस्तु है जिससे आप लोग इकट्ठे हो रहे हैं।

‘‘क्या आप विवाहित हैं?’’

‘‘हां, मेरे दो बच्चे भी हैं।’’

‘‘तब तो आप वास्तव में इसकी गुरु बन सकती हैं।’’

‘‘मैं गुरु नहीं, गुरनाम कौर हूं। हंसी-हंसी में यह मुझे अपनी अध्यापिका कहती है। वास्तव में हम दोनों किसी अन्य की शिष्यायें हैं।’’

‘‘बहुत खूब! ये आपकी शिष्या और आप किसी अन्य की शिष्या। तो क्या अब आप किसी दिन उनको भी लेकर आयेंगी?’’

‘‘नहीं वे तो वृद्धा हैं। उनको कष्ट देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।’’

‘‘हां, तो बताइये मेरे लिए क्या उपदेश है?’’

‘‘मैं उपदेश देने के लिए नहीं आई। मैं तो अपनी सखी के लिए आई हूं। मैं समझती हूं कि महेश ने मुझे लाकर ठीक ही किया है। जिस जिस बात का उसको भय था, आप वही करने के लिए उद्यत बैठे थे।’’

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