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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘एक अन्य विद्वान हुए हैं, भगवान् कृष्ण। उन्होंने एक स्थान पर कहा है, ‘जो कहते हैं कि वे जान गये हैं वे कुछ नही जानते और जो कहते हैं कि मैं कुछ नहीं जानता, वे कुछ तो जानते ही हैं’।’’

मदन ने न्यूटन के विषय में पढ़ा था, परन्तु कृष्ण के विषय में वह कुछ तो जानता था। इससे उसने कह दिया, ‘‘जो कुछ नहीं जानता, वह कुछ तो जानता है, यह कौन-सी भाषा और फिलौसोफी की बात है?’’

अब तीनों स्त्रियां हंसने लगीं। दादी ने कहा, ‘‘यह ठीक कहती है। मदन! मैं भी कभी-कभी विचार किया करती हूं। जब तुम्हारी भारी -भारी पुस्तकों को झाड़-फूंक कर रखा करती हूं तो यही समझ में आया करता है कि उसमें व्यर्थ की बातें अवश्य होंगी, अन्यथा इतना कुछ पढ़कर भी तुमको अमरीका जाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है?

‘‘देखो, एक बार एक महात्मा शेखुपुरा में आये थे। वे तुम्हारे परबाबा से कह रहे थे कि वेदान्त दर्शन के एक सूत्र की व्याख्या में उन्होंने तीन सौ पृष्ठ की पुस्तक लिखी है। इसका अभिप्राय यही हुआ कि लम्बी बात करने से क्या लाभ?’’

मदन समझता था कि अम्मा तो बूढ़ी हो गई है। पांच-दस वर्ष में वह संसार छोड़ जायेगी। परन्तु महेश्वरी और उसकी सहेली तो अभी कई वर्ष तक जीवित रहेंगी। वे तो देश को रूढ़िवादिता की ओर धकेल रही हैं। महेश्वरी को वह अकेले में समझा नहीं सका था। अब तो उसके सम्मुख एक ही विचार आता था, कि तीन महिलायें एकत्रित हो गईं है, कोई पुरुष होता तो उसको वह समझाता भी। औरतों तो, उसके विचार से, कभी, समझ ही नहीं सकतीं।

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