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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘व्यर्थ है। होटल तो महंगा होगा और असुविधाजनक भी। विश्वविद्यालय के छात्रावास में स्वतन्त्रता नहीं रहेगी। तुम हमारे घर में आ जाओ। यहां पर तुम्हें एक कमरा मिल जायेगा।’’

‘‘तो मैं पेयिंग गैस्ट बन जाऊं?’’

‘‘नो नो!’’ मिसेज साहनी ने कहा, ‘‘मदन! लाला फकीरचन्द के दामाद को मैं अपना ही दामाद समझती हूं।’’

‘‘परन्तु मम्मी! यहां अमेरिका में तो लड़का-लड़की भी अपने मां- बाप के घर में पैसा देकर ही रह सकते हैं? आप तो अब अमेरिकन नागरिक बन गई हैं न?’’

‘‘ओह! हां, मैं कभी-कभी भूल जाती हूं कि मैं अमेरिका में बस गई हूं। पुराने भारतीय विचार कभी-कभी उभर उठते हैं। अच्छा, तुम उतना ही दे देना जितना लैसली देती है।’’

‘‘क्या देती हैं आप? मिस साहनी!’’

‘‘केवल अपना स्नेह।’’ लैसली ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘इतना तो रहने का स्थान मिले बिना भी मैं दे दूंगा। इसके अतिरिक्त भी तो देने का अवसर मिलना चाहिए।’’

डॉक्टर साहनी कहने लगा, ‘‘मैं तो यह समझता हूं कि देने वाले की नीयत देने की होनी चाहिए। लेने वाला तो मनुष्य होने के नाते इनकार नहीं कर सकता।’’

मिसेज साहनी ने कहा, ‘‘यह हम फिर विचार कर लेंगे। इधर आओ मेरे साथ। मैं तुम्हें कमरा दिखा देती हूं। मैं समझती हूं कि तुम पसन्द कर लोगे।’’

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