कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
गाड़ी के आने में अभी घंटों की देरी थी। जीवनदास प्लेटफार्म पर जा कर टहलने लगे। धीरे-धीरे उनकी गति तीव्र होने लगी, मानों कोई उनका पीछा कर रहा है। उन्हें इसकी बिल्कुल चिंता न थी कि मैं खाली हाथ हूँ। जाड़े के दिन थे। लोग सरदी के मारे अकड़े जाते थे, किंतु उन्हें ओढ़ने-बिछौने की भी सुधि न थी। उनकी चैतन्यशक्ति नष्ट हो गयी थी; केवल अपने दुष्कर्म का ज्ञान जीवित था। ऐसी शंका होती थी कि प्रभावती मेरे पीछे दौड़ी चली आती है, कभी भ्रम होता है कि लखनदास भागता हुआ आ रहा है, कभी पड़ोसियों के धर-पकड़ की आवाज कानों में आती थीं, उनकी कल्पना प्रतिक्षण उत्तेजित होती जाती थी यहाँ तक कि प्राणभय से माल के बोरों के बीच में जा छिपे। एक-एक मिनट पर चौंक पड़ते थे। और सशंक नेत्रों से इधर-उधर देख कर फिर छिप जाते थे। उन्हें अब यह भी स्मरण न रहा कि मैं यहाँ क्या करने आया हूँ, केवल अपनी प्राणरक्षा का ज्ञान शेष था। घंटिया बजीं, मुसाफिरों के झुंड के झुंड आने लगे, कुलियों की बक-झक, मुसाफिरों की चीख और पुकार, आने-जानेवाले इंजिनों की धक-धक से हाहाकार मचा हुआ था; किंतु जीवनदास उन बोरों के बीच में इस तरह पैतरे बदल रहे थे मानो वे चैतन्य हो कर उन्हें घेरना चाहते हैं।
निदान गाड़ी स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गयी। जीवनदास सँभल गये। स्मृति जागृत हो गयी। लपक कर बोरों में से निकले और एक कमरे में जा बैठे।
इतने में गाड़ी के द्वार पर ‘खट-खट’ की ध्वनि सुनायी दी। जीवन दास ने चौंक कर देखा, टिकट का निरीक्षक खड़ा था, उनकी अचेतावस्था भंग हो गयी। वह कौन-सा नशा है, जो मार के आगे भाग न जाय। व्याधि की शंका संज्ञा को जागृत कर देती है। उन्होंने शीघ्रता से जल-गृह खोला और उसमें घुस गये। निरीक्षक ने पूछा– ‘‘और कोई नहीं?’’ मुसाफिरों ने एक स्वर से कहा–‘‘अब कोई नहीं है।’’ जनता को अधिकारी वर्ग से एक नैसर्गिक द्वेष होता है। गाड़ी चली तो जीवनदास बाहर निकले। यात्रियों ने एक प्रचंड हास्यध्वनि से उनका स्वागत किया। यह देहरादून मेल था।
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