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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


रात्री का समय था। बारह बज चुके थे। जीवनदास को किसी करवट नींद न आती थी। अपने जीवन का चित्र उनके सामने था। इन पंद्रह वर्षों में उन्होंने जो काँटे बोये थे वे इस समय उनके हृदय में चुभ रहे थे। जो गढ़े खोदे थे वे उन्हें निगलने के लिए मुँह खोले हुए थे। उनकी दशा में एक ही दिन में घोर परिवर्तन हो गया था। अभिव्यक्ति और अविश्वास की जगह विश्वास का अभ्युदय हो गया था, और वह विश्वास केवल मानसिक न था, वरन् प्रत्यक्ष था। ईश्वरीय न्याय का भय एक भयंकर मूर्ति के सदृश्य उनके सामने खड़ा था। उससे बचने के लिए अब उन्हें कोई युक्ति नजर न आती थी। अब तक उनकी स्थिति उस आग की चिनगारी के समान थी, जो किसी मरुभूमि पर पड़ी हुई हो। उससे हानि की कोई शंका न थी; लेकिन आज वह चिनगारी एक खलिहान के पास पड़ी हुई थी। मालूम नहीं कब वह प्रज्वलित हो कर खलिहान को भस्मीभूत कर दे।

ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, यह भय ग्लानि का रूप धारण करता जाता था। ‘‘हाँ खोस! मैं इस योग्य भी नहीं कि इस साक्षात् क्षमा-दया को अपना कलुषित मुँह दिखाऊँ। उसने मुझ पर सदैव करुणा और वात्सल्य की दृष्टि रखी और यह शुभ दिन दिखाया। मेरी कालिमा उसकी उज्ज्वल कीर्ति पर एक काला दाग है। मेरी कलुषता क्या इस मंगल चित्र को कलुषित न कर देगी? मेरी पापाग्नि के स्पर्श से क्या हरा-भरा उद्यान मटियामेट न हो जायेगा? मेरी अपकीर्ति कभी न कभी प्रकट हो कर इस कुल की मर्यादा और सम्मान को नष्ट कर देगी? मेरे जीवन से अब किसको सुख है? कदाचित् भगवान ने मुझे लज्जित करने के लिए, मुझे अपनी तुच्छता को अवगत कराने के लिए, मेरे गले में अनुताप की फाँसी डालने के लिए यह अद्भुत् लीला दिखायी है। हा! इसी कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए भीषण हत्याएँ की थीं। क्या अब जीवित रह कर इसकी दुर्दशा कर दूँ जो मर कर भी न कर सका? मेरे हाथ खून से लाल हो रहे हैं। परमात्मन्! वह खून रंग न लाये। यह हृदय पापों के कीटाणु से जर्जर हो रहा है। भगवान्, यह कुल उनके छूत से बचा रहे।’’

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