कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
मनोरमा–मुझे बहलाओ मत। मैं हठ नहीं करती, लेकिन यहाँ मेरा जीवन अपाढ़ हो जायेगा। मेरे हृदय की दशा विचित्र है। तुम्हे अपने सामने न देख कर मेरे मन में तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं कि कहीं चोट न लग गयी हो, शिकार खेलने जाते हो तो डरती हूँ कहीं घोड़े ने शरारत न की हो। मुझे अनिष्ट का भय सदैव सताया करता है।
अमरनाथ–लेकिन मैं तो विलास का भक्त हूँ। मुझ पर इतना अनुराग करके तुम अपने ऊपर अन्याय करती हो।
मनोरमा ने अमरनाथ को दबी हुई दृष्टि से देखा जो कह रही थी कि मैं तुमको तुमसे ज्यादा पहचानती हूँ।
बुंदेलखंड में भीषण दुर्भिक्ष था। लोग वृक्षों की छालें छील-छील कर खाते थे। क्षुधा-पीड़ा ने भक्ष्याभक्ष्य की पहचान मिटा दी थी। पशुओं का तो कहना ही क्या, मानव संताने कौड़ियों के मोल बिकती थीं। पादरियों की चढ़ बनी थी, उनके अनाथालयों में नित्य गोल के गोल बच्चे भेड़ों की भाँति हाँके जाते थे। माँ की ममता मुठ्टी भर अनाज पर कुर्बान हो जाती। कुँवर अमरनाथ काशी-सेवा-समिति के व्यवस्थापक थे। समाचार-पत्रों में यह रोमांचकारी समाचार देखे तो तड़प उठे। समिति के कई नवयुवकों को साथ लिया और बुंदेलखण्ड जा पहुँचे। मनोरमा को वचन दिया कि प्रतिदिन पत्र लिखेंगे। और यथासम्भव जल्द लौट आयेंगे।
एक सप्ताह तक तो उन्होंने अपना वचन पालन किया, लेकिन शनैःशनैः पत्रों में विलम्ब होने लगा। अक्सर इलाके डाकघर से बहुत दूर पड़ते थे। यहाँ से नित्यप्रति पत्र भेजने का प्रबन्ध करना दुःसाध्य था।
मनोरमा वियोग-दुःख से विकल रहने लगी। वह अव्यवस्थित दशा में उदास बैठी रहती, कभी नीचे आती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग में जा बैठती। जब तक पत्र न आ जाता वह इसी भाँति व्यग्र रहती, पत्र मिलते ही सूखे धान में पानी पड़ जाता।
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