कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
यह कह कर कैलाशकुमारी वहाँ से चली गयी कि कहीं मुंह से अनर्गल शब्द न निकल पड़ें। इधर कुछ दिनों से उसे अपनी बेकसी का यर्थाथ ज्ञान होने लगा था स्त्री पुरुष की कितनी अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसलिए बनाया है कि पुरुषों के अधीन रहे। यह सोच कर वह समाज के अत्याचार पर दाँत पीसने लगती थी।
पाठशाला तो दूसरे दिन बन्द हो गयी, किंतु उसी दिन कैलाशकुमारी को पुरुषों से जलन होने लगी। जिस सुख-भोग से प्रारब्ध हमें वंचित कर देता है उससे हमें द्वेष हो जाता है। गरीब आदमी इसीलिए तो अमीरों से जलता है और धन की निन्दा करता है। कैलाशी बार-बार झुँझलाती कि स्त्री क्यों पुरुष पर इतनी अवलम्बित है? पुरुष क्यों स्त्री के भाग्य का विधायक है? स्त्री क्यों नित्य पुरुषों का आश्रय चाहे, उनका मुँह ताके? इसलिए न कि स्त्रियों में अभिमान नहीं है, आत्म सम्मान नहीं है। नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्ते का दुम हिलाना मालूम होने लगे। प्रेम कैसा। यह सब ढोंग है, स्त्री पुरुष के अधीन है, उसकी खुशामद न करे, सेवा न करे, तो उसका निर्वाह कैसे हो।
एक दिन उसने अपने बाल गूंथे और जूड़े में गुलाब का फूल लगा लिया। माँ ने देखा तो ओंठ से जीभ दबा ली। महरियों ने छाती पर हाथ रखे।
इसी तरह उसने एक दिन रंगीन रेशमी साड़ी पहन ली। पड़ोसिनों में इस पर खूब आलोचनाएँ हुईं।
उसने एकादशी का व्रत रखना छोड़ दिया जो पिछले आठ बरसों से रखती आयी थी। कंघी और आइने को वह अब त्याज्य न समझती थी।
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